भारत की संवैधानिक राजनीति में एक अभूतपूर्व टकराव ने हलचल मचा दी है। देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और सर्वोच्च न्यायालय के बीच अधिकारों और विवेकाधीन शक्तियों की सीमाओं को लेकर खुला टकराव सामने आया है। 8 अप्रैल, 2025 को सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ द्वारा दिए गए उस ऐतिहासिक फैसले पर राष्ट्रपति ने कड़ा रुख अपनाते हुए इसे “संविधान के मूल ढांचे और संघीय व्यवस्था” के विरुद्ध बताया है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला: टाइमलाइन फिक्स या संवैधानिक अतिक्रमण?
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की पीठ ने फैसला सुनाया कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। अगर राज्यपाल किसी बिल को लौटाता है और उसे दोबारा पारित किया जाता है, तो एक महीने में निर्णय देना होगा। और यदि वह विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, तो उन्हें भी तीन महीने में निर्णय देना होगा।
सबसे विवादास्पद हिस्सा यह था कि कोर्ट ने कहा, अगर इस तय समयसीमा में कोई निर्णय नहीं लिया गया, तो विधेयक को “मंजूरी प्राप्त” माना जाएगा।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की आपत्ति: “ये कोई पिज्जा डिलीवरी नहीं”
राष्ट्रपति मुर्मू ने इस फैसले को सीधे तौर पर संविधान की मर्यादा और राष्ट्रपति पद की गरिमा के खिलाफ बताया। उन्होंने कहा:
“अनुच्छेद 200 और 201 में ऐसा कोई टाइम-टेबल नहीं दिया गया है, तो सुप्रीम कोर्ट कौन होता है समय सीमा तय करने वाला? ये कोई पिज्जा डिलीवरी नहीं, ये संवैधानिक निर्णय है।”
उन्होंने ‘मंजूरी प्राप्त’ की अवधारणा को भी सिरे से खारिज किया और कहा कि यह राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों के विवेकाधीन अधिकारों पर अतिक्रमण है।
अनुच्छेद 143(1) के तहत 14 संवैधानिक सवाल
राष्ट्रपति मुर्मू ने इस मसले को बेहद गंभीरता से लेते हुए संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय मांगी है। यह अनुच्छेद तभी प्रयोग में लाया जाता है जब कोई मामला संविधान की मूल भावना या ढांचे से जुड़ा हो।
इस कदम से राष्ट्रपति ने स्पष्ट कर दिया है कि यह केवल असहमति नहीं, बल्कि संवैधानिक चेतावनी है।
अनुच्छेद 142 पर सवाल: न्यायिक अतिरेक?
राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट द्वारा अपनी शक्ति के प्रयोग को लेकर भी सवाल उठाए। उन्होंने कहा:
“जहां संविधान में स्पष्ट व्यवस्था हो, वहां 142 का प्रयोग न्यायिक अतिरेक पैदा करता है। राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान ने निर्णय लेने का पूर्ण विवेकाधिकार दिया है, इसमें न्यायपालिका का हस्तक्षेप अनुचित है।”
अनुच्छेद 32 बनाम अनुच्छेद 131: राज्यों का तरीका सवालों के घेरे में
राष्ट्रपति ने राज्यों द्वारा अनुच्छेद 32 के प्रयोग पर भी सवाल उठाया। उन्होंने पूछा कि जब केंद्र और राज्य के बीच विवाद होता है, तो अनुच्छेद 131 का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता? राज्य सरकारें सीधे अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट क्यों जाती हैं? इससे संवैधानिक प्रक्रिया और शक्तियों के पृथक्करण पर प्रश्न खड़े होते हैं।
राष्ट्रपति भवन बनाम सुप्रीम कोर्ट: ऐतिहासिक मोड़
यह पहला मौका है जब राष्ट्रपति पद ने सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले को इतनी सख्ती से सार्वजनिक रूप से चुनौती दी है। यह संवैधानिक बहस न सिर्फ कानूनी दायरे में बल्कि राजनीतिक गलियारों में भी चर्चा का विषय बन चुकी है। विशेषज्ञों के अनुसार, यह टकराव आगे चलकर केंद्र-राज्य संबंधों, राष्ट्रपति की भूमिका और न्यायपालिका की सीमाओं को लेकर एक बड़ी बहस को जन्म दे सकता है।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू बनाम सुप्रीम कोर्ट का यह टकराव भारत के संवैधानिक इतिहास में मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह केवल विधेयकों की मंजूरी का मुद्दा नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा और शक्तियों के संतुलन की एक निर्णायक परीक्षा है। इस पर सुप्रीम कोर्ट की अगली प्रतिक्रिया क्या होगी, यह देखना अब पूरे देश की निगाहों का केंद्र बन चुका है।