आज तारीख वही है, लेकिन वक्त बदल गया है। मंच पर अब वो सादगी नहीं, वो तेज़ नहीं, और सबसे बड़ी बात—वो स्वर नहीं, जो किसी भी समारोह को आत्मा दे देता था। मुक्तेश्वर उपाध्याय, जिन्हें पूरा भोजपुरिया समाज श्रद्धा और स्नेह से “मुक्तेश्वर बाबा” कहकर पुकारता था, आज हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी आत्मा, उनकी मुस्कान, और उनकी विरासत आज भी जीवित है — हर दिल में, हर गाँव की याद में, और हर वो गीत में जो समाज को जोड़ता है। आज उनकी दूसरी पुण्यतिथि है। एक दिन जिसे भोजपुर का हर कलाकार, हर राजनीतिक कार्यकर्ता, हर ग्रामीण और हर सजग नागरिक भूलना नहीं चाहता।
वो बाबा, जो किसी को छोटा नहीं मानते थे
मंच बड़ा हो या छोटा, सभा में आमंत्रण हो या न हो — यदि मुक्तेश्वर बाबा पास में हों, तो वहाँ एक अलौकिक ऊर्जा स्वतः प्रवाहित हो जाती थी। ललाट पर तिलक, कांधे पर गमछा और चेहरे पर मुस्कान — बाबा की पहचान थी। वे मंच पर आते थे बिना किसी तामझाम के। ना कोई भारी-भरकम परिचय, ना कोई विशेष घोषणा। बस दो-चार आत्मीय पंक्तियाँ और फिर या तो भक्ति की झंकार या राजनीतिक चेतना का प्रवाह — उनकी कला ने हर दिल को छू लिया।
एक कलाकार, जिसकी आवाज़ से आत्मा जाग उठे
चार दशकों तक उन्होंने भोजपुरी मंचीय कला, संस्कृतिक परंपराओं, और भक्ति संगीत के माध्यम से समाज को जोड़ा। चाहे वह राम-सीता विवाह समारोह हो या हनुमान जयंती महोत्सव, नाटक हो या लोकगीत — उनकी प्रस्तुति हर बार एक नई ऊर्जा, नई रोशनी लेकर आती थी। भोजपुरी के प्रसिद्ध गायक बालेश्वर बिरहिया के साथ जब उन्होंने लालू प्रसाद यादव द्वारा आयोजित पटना की ऐतिहासिक ‘लाठी रैली’ में मंच साझा किया, तो सिर्फ़ एक कलाकार नहीं बल्कि एक जनचेतना के वाहक के रूप में सामने आए।
राजनीति में कला की मिठास
मुक्तेश्वर उपाध्याय केवल एक कलाकार नहीं थे। वे एक विचारक, एक योद्धा और एक कुशल संगठनकर्ता भी थे। वे अंतिम सांस तक भोजपुर जिला कांग्रेस के कला-संस्कृति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष रहे। जिस दिन उनके निधन की खबर आई — उससे एक दिन पहले ही वे आरा में महागठबंधन के धरने में शामिल हुए थे। वे मंचों पर भी थे और मोर्चों पर भी। वे माइक के पीछे भी खड़े थे और समाज के पीछे भी।
उनकी जड़ें गांव में थीं, शाखाएं पूरे जिले में
मुफ्फसिल थाना क्षेत्र के बेला गांव निवासी पशुपतिनाथ उपाध्याय के सबसे बड़े पुत्र मुक्तेश्वर उपाध्याय ने गांव के हर सामाजिक कार्य में भाग लिया। वे नाथशरण उपाध्याय के पौत्र थे, जो स्वतंत्रता सेनानी थे। बाबा हर वर्ष अपने दादा की स्मृति में विशाल सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम का आयोजन करते थे, जिसमें जिले के वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं की उपस्थिति रहती थी। यह उनका ज़मीनी जुड़ाव ही था कि वे कभी बड़े नहीं हुए, और सबको साथ लेकर चलते रहे।
और फिर एक दिन… सबकुछ थम गया
17 जून 2023 — एक ऐसी तारीख जिसने भोजपुर की संस्कृति से एक अभिन्न अध्याय छीन लिया।
हृदयगति रुक जाने के कारण, मुक्तेश्वर उपाध्याय का देहांत हो गया, पर उनके जाने से सिर्फ़ एक शरीर समाप्त नहीं हुआ — एक युग समाप्त हो गया।
लेकिन बाबा नहीं गए — वे हर मंच पर आज भी जिंदा हैं
आज भी कोई कलाकार मंच पर पहली बार जाता है और डर के मारे कांपता है — तो उसे बाबा की सहजता याद आती है। आज भी कोई गायक भक्ति गीत गाता है — तो उसमें बाबा की आवाज़ की छवि दिखती है। आज भी किसी गाँव में कोई कार्यक्रम होता है — तो लोग पूछते हैं, “मुक्तेश्वर बाबा आएंगे?” फिर सब चुप हो जाते हैं… और आंखें नम हो जाती हैं।
उनकी विरासत — हम सबकी जिम्मेदारी
मुक्तेश्वर उपाध्याय जैसे व्यक्तित्व बार-बार जन्म नहीं लेते। उन्होंने साधना, सेवा और सादगी की जो त्रयी समाज को सौंपी है — वह आज भी हमारा मार्गदर्शन करती है। उनकी स्मृति में अगर हम एक दूसरे का सम्मान करना सीख जाएं, कला और समाज के बीच सेतु बनाना सीख जाएं — तो यही उनकी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
मुक्तेश्वर बाबा को नमन —
एक ऐसे योद्धा को, जिनकी सादगी प्रेरणा थी, जिनकी आवाज़ संस्कृति थी, और जिनका जीवन समाज का भजन था। आपकीयादों को शब्दों का यह नमन — भोजपुर की मिट्टी से, उस सुर को जो कभी शांत नहीं होगा।
“स्वर रुके हैं, सुर नहीं,
देह थमी है, धड़कन नहीं,
मुक्तेश्वर बाबा गए नहीं,
अब वे समाज की आत्मा बन गए।”